
शिल्पा वर्मा, जयपुर, (राजस्थान)
बेचारे यादराम को लड़कपन से ही एक बड़ी विचित्र बीमारी है। अपनी सुविधानुसार उसकी याददाश्त आती- जाती रहती थी। जैसे बचपन में दोस्तों के सिर पत्थर मारकर लहूलुहान करने के बाद वह रोता हुआ घर भाग जाता था। माता जी के आंचल में छुप जाता। जब दोस्त लहूलुहान अवस्था में रोते हुए अपनी माताओं संग उसके घर पहुंचते तो यादराम उनको घायल करने का कारण तो दूर उनके नाम तक भूल जाता था। माताएं आपस में लड़ झगड़ के चुप हो जाती। ऐसी कुछ घटनाओं के बाद यादराम को डॉक्टर के पास ले जाया गया। वह भी ऐसी विचित्र बीमारी का उपचार न कर पाए थे। केवल इतना कहा कि बच्चा है संवेदनशील है। इसका खयाल रखिए। अपने आप ठीक हो जाएगा। माता पिता की सहानुभूति देख यादराम की बीमारी समय के साथ और बढ़ने लगी। जब पंद्रह सोलह बरस का हुआ तो पिताजी के बटुए से पैसे चुरा के, सिनेमा देखकर, बाज़ार से चाट पकौड़ी खा के वापस आ गया। पिताजी ने बटुए पैसों के बारे में पूछा तो बोला कौनसे पैसे पिताजी! मुझे कहां याद रहता है। आप तो मेरी बीमारी जानते ही हैं। माता जी बीच में आ गई कि मेरे बेटे के पीछे क्यों पड़े रहते हो? ये बेचारा तो अपनी बीमारी से ही दुःखी है, इसे और परेशान न करो। इस बात से पिताजी के शक की सुई ने दिशा बदल ली और उस ओर घूम गई जिस ओर माता जी खड़ी थी। फिर क्या था! माताजी के साथ साथ उनके मायके वालों को भी गालियों से नवाजा गया। उधर माताजी भी पिताजी के परिवार के पूरे वृक्ष में कहां कहां दीमक लगी है, कौनसी शाख पर कितने कोटर हैं सब गिना पड़ी। बेचारा भोला यादराम चुपके से निकल गया।
अपनी बीमारी के चलते जैसे तैसे उत्तीर्ण होकर बेचारा यादराम कॉलेज में दाखिला ले पाया। लेकिन वहां भी बीमारी ने पीछा न छोड़ा। हुआ कुछ यों कि यादराम की मौखिक बदतमीजी का एक लड़की ने मौखिक विरोध कर दिया। यादराम को गुस्सा आया।अपनी मौखिक बेइज्जती का शारीरिक बदला लेने की चेष्टा ने यादराम को लड़की के पास पहुंचा दिया। लड़की कुछ तो निडर थी, कुछ उसने आत्मरक्षा के गुर सीखे हुए थे सो बेचारे यादराम लात घूंसे ले के आए। वापस घर लौटे तो घरवालों ने हालत पस्त होने का कारण पूछा तो हर बार ऐसी घटना के समय प्रकट होने वाली बीमारी का हवाला दिया गया। बोला मुझे तो कुछ याद नहीं। माता जी के मुख से यादराम के उस अज्ञात दुश्मन को दर्जनों गालियां मिली और उसे सहानुभूति और दुलार।
फिर कुछ वर्षों बाद किसी की सिफारिश पर यादराम पुलिस महकमें में भर्ती हुआ। इस तरह वह पहली बार यादराम से यादराम जी बना। अब एक घटना कुछ ऐसी घटी कि पुलिस द्वारा एक अपराधी से रिश्वत नहीं नहीं ज़ब्त किए गए कुछ करोड़ रुपए गायब हो गए। सबके साथ यादराम जी से भी पूछताछ की गई। फिर वही हाल। उनकी याददाश्त धोखा दे गई। इज़्ज़त तो बची लेकिन नौकरी न बच पाई क्योंकि यादराम जी को पुलिस की नौकरी के लिए ‘मेडिकली अनफिट’ पाया गया। सो उनके नाम के आगे लगा ‘जी’ जाता रहा।
लेकिन एक बात हुई कि यादराम की याददाश्त का यह किस्सा काफ़ी लोकप्रिय हुआ। बात एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के कानों तक पहुंची। फिर क्या था उस पार्टी ने यादराम में “देशसेवा को समर्पित नेता” के न जाने कौनसे गुण देख डाले कि उसे मिलने को पार्टी के कार्यालय में बुलाया गया। यादराम चूंकि बेकार बैठा था सो पहुंच गया। नहीं नहीं इस बार उसकी याददाश्त नहीं गई। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में बातचीत हुई, कुछ ने विरोध किया लेकिन फिर पार्टी के हितों में सबका हित के सिद्धांत का पालन करते हुए सब इस बात पर एकमत हुए कि आगामी चुनाव में यादराम को पार्टी की तरफ़ से विधायक पद का प्रत्याशी बनाया जाए लेकिन अपने चुनाव प्रचार का खर्चा यादराम खुद उठाएगा। इतनी बड़ी पार्टी का आशीष यादराम ने अपनी पूरी याददाश के साथ शर्त स्वीकार करके व सिर झुका कर लिया।
चुनाव के दिन आए। न जाने कैसा संयोग बैठा कि उस बार थाने को गायब हुए रुपयों जितना ही धन यादराम ने अपने प्रचार अभियान ने झोंक डाला। यादराम की एक विशेषता यह भी है कि वह अपने चेहरे और बातों को सदा भोलेपन और मासूमियत का जामा पहनाए रखता था। कुछ इस बात का प्रभाव हुआ। उस पर यादराम ने एक से बढ़कर एक अपनी भावी और सुनहरी योजनाओं के वायदों की फेहरिस्त बनवाकर गली, मोहल्लों, नुक्कड़ों पर खूब पर्चे बंटवाए, शराब – कबाब तो बांटने ही थे। जनता को भला और क्या चाहिए था! यादराम विजयी हुए और इस प्रकार एक बार फिर नाम के आगे ‘जी’ चस्पा करवा लिया। कुछ दिन में शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न हुआ। जब धीरे धीरे जनता के दिमाग़ से अपने प्रत्याशी की जीत का उत्साह कम होने लगा तो यादराम जी से उनके किए वादों और जुमलों पर प्रश्न पूछे जाने लगे। इस बार यादराम जी की वही पुरानी बीमारी कुछ विकराल रूप में सामने आई। वे कहने लगे – भाइयों! मैंने तो ऐसे कोई वादें न किए थे, यहां तक कि मैंने तो अपना प्रचार तक न किया था। फिर भी विजयी हुआ तो मुझे लगा आप सब मुझे चाहते हैं, मेरे प्रति सम्मान की भावना रखते हैं। मेरे बारे में विरोधी पार्टी के लोग तो ये तक कहते थे कि यादराम बीमारी का नाटक करता है, अपनी गड़बड़ियों के समय ही इसकी याददाश्त चली जाती है लेकिन दोस्तों आपने फिर भी मुझ पर इतना विश्वास दिखाया था। आंखों में आंसू भरकर अपने भोले चेहरे पर उदासी लाकर आगे यादराम जी कहने लगे कि आज मेरी जनता माता ने ऐसे सवाल पूछकर मेरा दिल दुखाया है। जबकि आप सब जानते थे कि आपके यादराम की याददाश तो बचपन से ही कमज़ोर है। इतना कहकर यादराम जी ने जनता की सहानुभूति फिर जीत ली। इस बार जनता की आंखों में आंसू आ गए। बेचारे यादराम जी की याददाश्त!