
फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ में दिवंगत एक्टर इरफान खान के साथ पर्दे पर एक नया चेहरा दिखा। सीधा-सादा, बिना मेकअप का वो चेहरा लोगों के जेहन पर छप गया। हां, ये बात बहुत कम लोगों को पता है कि लाखों दिल में उतरने से पहले उस चेहरे ने 13 साल लगातार मेहनत की थी, रिजेक्शन भी झेला था। उस एक फिल्म ने रिजेक्शन के हर उस घाव को भर दिया था, जो उसे फिल्म इंडस्ट्री से मिले थे। ‘द लंच बॉक्स’ से उस चेहरे को इतनी पहचान मिली कि आज उस चेहरे की अदायगी की डिमांड बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी है।
आज की सक्सेस स्टोरी में निमरत कौर अपनी बॉलीवुड टु हॉलीवुड जर्नी बता रही हैं….

कश्मीर में पापा को आतंकियों ने अगवा कर बेरहमी से मारा
1994 का साल था, जब सर्दियों की छुट्टी में मां और हम दोनों बहन पापा से मिलने कश्मीर पहुंचे थे। वहां एक दिन हिजबुल के आतंकियों ने पापा को उनके वर्कप्लेस से अगवा कर लिया। पापा को छोड़ने के बदले वो कुछ आतंकियों की रिहाई चाहते थे। सात दिनों तक पापा को टॉर्चर करने के बाद उन्होंने गोली मारी दी। उस वक्त मैं सिर्फ 11 साल की थी।
पापा के ना रहने का मेरे जीवन पर गहरा असर पड़ा। ये उम्र का वो पड़ाव होता है, जिसमें आप न तो छोटे बच्चे होते हैं और न ही मैच्योर इंसान। उस फेज में मुझे जिंदगी का कड़वा सच सहना पड़ा। मेरी जिंदगी की फाउंडेशन वहां से चेंज हो गई। मैं समय से पहले मैच्योर हो गई। उसका एहसास तब नहीं हुआ, आज जब मैं उस समय के बारे में सोचती हूं फिर लगता है। मां हम दोनों बहनों के लेकर दिल्ली शिफ्ट हो गई।

आर्मी और सिविलियन लाइफ में बहुत फर्क था
पापा मेरे फौज में थे तो पूरा बचपन कॅन्टोनमेंट में बीता। छोटे शहरों के आर्मी कैंट में बहुत ही सुंदर और सुरक्षित माहौल हुआ करता था। सारे घरों में एक सा फर्नीचर, बच्चों के पास एक सा स्कूल बैग होता था। असल में कहूं तो सिंपल और सादा एनवायर्नमेंट था। आर्मी एरिया से सिविलियन एरिया में आना मेरी लाइफ के लिए बहुत बड़ा बदलाव था। मैं हमेशा पंजाब, कश्मीर के छोटे-छोटे शहरों में रही थी।
वहां से दिल्ली आना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। उस वक्त के हिसाब से नोएडा भी मेरे लिए बहुत बड़ा शहर था। सिविलियन एरिया में लोग अलग थे, जीवन जीने का तरीका अलग था, माहौल अलग था। पापा के बिना लाइफ ने एक अलग ही मोड़ ले लिया था। जिंदगी की कायापलट हो गई थी। मैं 10 साल तक मैं दिल्ली रही फिर वहां से मुंबई आ गई।

ऑटो इम्यून डिजीज ने स्पोर्ट्स से दूर किया
मैं 9 साल की थी, तब मुझे रुमैटिक हार्ट फीवर नाम की अजीब सी ऑटो इम्यून प्रॉब्लम हो गई थी। इसकी वजह से मैं एक साल तक कुछ नहीं कर पाई थी। मैं लगभग बेड रिडन वाली हालात में पहुंच गई थी। उस समय मैं पटियाला में पढ़ाई करती थी और स्प्रिंटर थी। रुमैटिक हार्ट फीवर की वजह से मुझे एथलेटिक लाइफ को छोड़ना पड़ा। रनिंग मेरा शौक था, वो छूट गया। मैं स्टेज को बहुत प्यार करती थी।
मैं स्कूल में एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी का हिस्सा बनती थी। मैं हमेशा डिबेट, स्कूल लेवल के प्ले का हिस्सा बनती थी। मैं शर्माती नहीं थी। मुझे स्टेज इसलिए पसंद था कि मुझे लोगों के रिएक्शन देखने का मौका मिलता था।
पढ़ाई से मन भरा तो मॉडलिंग की राह चुनी
कॉलेज के बाद मुझे पढ़ाई नहीं करनी थी। मैं पढ़ाई कर करके परेशान हो गई थी। मुझे समझ आ गया था कि अब कुछ ऐसा करना पड़ेगा, जिससे पैसे आएं और पढ़ाई नहीं करनी पड़े। मैंने मम्मी को जब ये बात बताई तो वह बहुत परेशान हो गईं। आर्मी के माहौल से मॉडलिंग की दुनिया में जाने को लेकर मेरी मां डरी थीं, लेकिन उन्हें मुझ पर भरोसा बहुत ज्यादा था। उन्हें पता था कि ये लड़की उस दुनिया में गुम नहीं होगी। ऐसे में मैं दिल्ली से मुंबई आ गई। यहां आकर सबसे पहले मैंने अपना पोर्टफोलियो बनवाया। मेरा पोर्टफोलियो मेरे एक जानने वाले ने बनाया था तो इस काम में मेरे पैसे बच गए।
मैं आम लड़की थी, जिसे बहुत ज्यादा अटेंशन नहीं मिलता था। मुझे पता नहीं था कि मैं कैसी दिखती हूं। बालों में तेल, लंबे स्कर्ट, ऊपर तक मोजे ऐसे मैं रही थी। बचपन ऐसा था, जहां कैसी दिखती हूं, जैसी बातों की अवेयरनेस नहीं थी। स्टेज पर दिखाना है, माधुरी दीक्षित बनना है, कपड़े बदल-बदलकर डांस करना है। ये मेरा सपना था, लेकिन इसे हकीकत में कैसे बदलना है, वो मुझे पता नहीं था। ये वो समय था,जब भारत में ब्यूटी पेजेंट का बोलबाला था। सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स बनी थीं। वो भी आर्मी बैकग्राउंड से आती हैं। फिर भी शाहरुख खान का इंटरव्यू खूब पढ़ती थी। उनके इंटरव्यू का मुझ पर बहुत गहरा असर रहा। उनका दिल्ली कनेक्शन था। ये सारी चीजों को मिलकर मैं सोचती थी कि मेरा भी चांस बन सकता है।
100 ऑडिशन दिए, सब में मिला रिजेक्शन
पोर्टफोलियो बनने के बाद मैं खुद उस प्रोडक्शन हाउस में देकर आती थी। मैंने 90-100 ऑडिशन दिए, तब जाकर मुझे मेरा पहला काम मिला था। मेरा पहला ऐड एशियन पेंट का था, जिसे शूजित सरकार ने शूट किया था। कैमरा पर मेरा पहला एक्सपीरियंस ‘तेरा-मेरा प्यार’ म्यूजिक वीडियो का रहा है।
सोनी म्यूजिक के कुछ कंपोजर लंदन से आए थे। उन्हें एक नई लड़की की तलाश थी। मुझे जैसे ही ये बात पता चली, मैंने अपना पोर्टफोलियो एक कॉमन फ्रेंड के जरिए भेजा और मुझे वो म्यूजिक वीडियो मिल गया। मैं बहुत लकी रही कि मेरे पहले काम को ही लोगों ने बहुत प्यार दिया। आज तक उस गाने को लेकर लोगों में क्रेज दिखता है।

लगातार मिले रिजेक्शन से सेल्फ डाउट में गई
मुंबई में चीजें आसान नहीं थीं। घर से दूर रहना, आस-पास कोई फैमिली का नहीं, ऐसे में खूब रोना धोना करती थी। घर में बात भी नहीं सकती थी, वरना वो कहते वापस आ जाओ। ऑडिशन देते-देते कभी-कभार ऐसी हालत होती थी कि पूरा दिन निकल जाता था और खाना नहीं मिलता था। ट्रेन से सफर, अपना मेकअप भी खुद करती थी। एक बार मैं ऑडिशन के लिए जा रही थी तो एक गाड़ी वाले ने मुझ पर पूरा कीचड़ उछाला दिया। मैंने खुद को जैसे-तैसे साफ किया और फिर जाकर ऑडिशन दिया।
इतने रिजेक्शन के बाद सेल्फ डाउट होने लगा था। मैं सोचने लगी कि क्या मैं जैसी दिखती हूं, वो काफी नहीं है? क्या मैं पर्दे पर आने लायक नहीं हूं। कभी कहते कि बहुत मॉर्डन दिखती हो। कभी बहुत इंडियन दिखने की बात कहकर रिजेक्ट कर देते थे। ऐसे में समझ नहीं आता था कि मैं कहां फिट बैठती हूं। रिजेक्शन देख-देखकर मैं परेशान हो गई कि मैं अपनी लाइफ के साथ कर क्या रही हूं।

थियेटर में बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड मिला
मुंबई आने के चार साल के अंदर मैंने बहुत सारी ऐड फिल्म्स कर ली थीं। शुरू में इतना काम मिलने लगा कि रसोई और घर का रेंट निकलने लगा। मेरा बैंक बैलेंस ठीक ठाक हो गया। मुझे बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं थी। बतौर निमरत, मुझे पता था कि हंसना, शर्माना और हैरानी वाले एक्सप्रेशन कैसे देते हैं। लेकिन बतौर एक्टर लाइन कैसे पढ़ते हैं, ये मुझे नहीं आता था। मुझे नहीं पता था कि मैं अलग-अलग किरदारों को कैसे प्ले करूं। मैंने मुंबई में थियेटर जाना शुरू किया। प्ले देखने के बाद मुझे एहसास हुआ कि बेहतर एक्टर बनने के लिए मुझे उन लोगों के साथ काम करना होगा।
मैं एक बहुत बड़े डायरेक्टर सुनील शानबाग के पास गई। वो उस वक्त कुछ म्यूजिकल प्ले बना रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें गाना आता है? मैंने हां में जवाब दिया। उन्होंने मुझे रिहर्सल पर बुला लिया। उस म्यूजिकल प्ले में मैंने छोटा सा रोल निभाया था। ऐसे करके मेरी थियेटर की जर्नी शुरू हो गई।
मुझे मेरे अगले ही प्ले के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड मिला। थियेटर में बेस्ट एक्ट्रेस का टैग मिलना बहुत बड़ी बात होती है। इससे मेरा और कॉन्फिडेंस बढ़ा। मैंने 5-6 साल जमकर थियेटर किया। हिंदी, इंग्लिश और छोटे-बड़े हर तरह का प्ले किया। इसके साथ मैं ऐड फिल्म भी करती रही। आज मैंने ज्यादातर थियेटर से ही सीखा है।

फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ ने मेरी लाइफ बदल दी
ये फिल्म शायद मेरे सब्र का फल थी। मुझे जब ये फिल्म ऑफर की गई थी, तब मुझे नहीं पता था कि इस फिल्म में और कौन काम कर रहा है। मुझे कहानी बहुत पसंद आई थी और मैंने हां कह दी थी। फिल्म में जो मेरा किरदार था, उसकी सिर्फ 9 दिनों में मलाड में शूटिंग हो गई थी। फिल्म बहुत कम रिसोर्स और बजट में बनी है। मेरे लिए कोई हेयर मेकअप वाला भी नहीं था। मैं अपना सब कुछ खुद ही देख रही थी।
मैं इरफान सर से पहली बार रीडिंग पर मिली थी। वो बहुत चुप रहते थे तो हमारी बहुत बात नहीं हुई। प्रॉपर मिलना और बातचीत फिल्म के सेट पर हुई। इरफान का काम देखकर बहुत कुछ सीखा। उनमें एक जादू था। इस फिल्म को जब कांस में दिखाया गया तो लोग पहले ही उठकर जाने लगे थे। हम सब डर गए कि ये क्या हुआ। क्या फिल्म लोगों को पसंद नहीं आई। बाद में हमें पता चला कि लोगों को फिल्म इतनी पसंद आई थी कि वो उस फिल्म की राइट्स लेने जा रहे थे। लंच बॉक्स 175 देशों में रिलीज हुई थी।
मुझे क्लोजर चाहिए था इसलिए कश्मीर वापस गई
फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ के बाद मैं कश्मीर गई। मेरी फिल्म को कांस में जो रिस्पांस मिला, मैं उससे बहुत ज्यादा अभिभूत थी। उस समय मुझे कश्मीर की याद आई। मुझे लगा कि अगर मैं अब वहां जाऊं तो मैं पापा को थोड़ा अपने करीब महसूस कर सकती हूं।
पापा की मौत के बाद पहली बार वहां गई थी। साल 1994 में जब हमने उन्हें खो दिया, हमारे पास क्लोजर नहीं था। घटना वाले दिन मैंने पापा को ऑफिस जाते देखा था और उसके बाद सीधे उनका कॉफिन देखने को मिला। हमें समझ नहीं आया था कि हमारे साथ हुआ क्या?
मई में कांस हुआ था, मैं जून में कश्मीर गई। मैं उस गांव में गई, जहां पापा को गोली मारी गई थी। मैं उस कैंटोनमेंट गई, जहां हम लोग रहे थे। वहां पर पापा के नाम पर एक व्यू प्वाइंट है, जहां से पूरे कश्मीर वैली का पहला व्यू मिलता है। मैं वहां गई। मैं क्लोजर की उम्मीद में उन सारी जगहों पर गई, जहां से मेरी यादें जुड़ी थीं। मन में कोई गुस्सा नहीं था, सिर्फ दुख था।

आज गंगानगर में उनकी मूर्ति लगी है। ये मेरे परिवार की दिली इच्छा थी। हम इस पर बहुत सालों से काम कर रहे थे। मैं खुद को खुशनसीब मनाती हूं कि मैं उस पोजिशन पर हूं, जहां से ये करना पॉसिबल हुआ। आर्मी और सिविल एडमिनिस्ट्रेशन के कोलेबोरेशन से ये मुमकिन हुआ कि पापा के बर्थ प्लेस पर उनकी याद में मूर्ति लग पाई। इससे वहां के लोगों को प्रेरणा मिलेगी।
फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ ने मुझे हॉलीवुड पहुंचा दिया
मैं अपनी फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ को लंदन में प्रमोट कर रही थी, जब मुझे हॉलीवुड सीरीज ‘होमलैंड’ के ऑडिशन के लिए बुलाया गया। मुझे ऑडिशन के लिए ईमेल आया था। मैं एकदम हैरान थी। मैं मुंबई में एक छोटी सी फिल्म कर रही थी और वहां से सीधे इंटरनेशनल प्रोजेक्ट के लिए कॉल आ गया। सीरीज क्या होता है, मुझे पता भी नहीं था। मैंने ‘होमलैंड’ देखी भी नहीं थी। मैंने शूट के पहले एक दिन में सीरीज के तीनों पार्ट देखे।
मैं स्क्रीन टेस्ट पर अपने ही कपड़े लेकर गई थी। मैं सीरीज में पाकिस्तानी लड़की का रोल निभा रही थी। ‘द लंच बॉक्स’ में मैं एक हाउसवाइफ थी और ‘होमलैंड’ में मुझे सीधे ISI एजेंट का किरदार निभाना था। मैंने उन्हें सलाह दी कि पंजाब दोनों तरफ है, ऐसे में कुछ कल्चरल वैल्यू होना चाहिए। मैंने सीरीज के लिए पंजाबी का इस्तेमाल और स्कार्फ का आइडिया दिया था।